मैथी

मैथी का वानस्पतिक नाम ट्राइगोनेला फोइनमग्रेसियम एवं कस्ततुरी मैथी का वानस्पतिक नाम ट्राइगोनेला कार्निकुलाटा है। मैथी की खेती मुख्यतः सब्जियों, दानों (मसालों) एवं कुछ स्थानों पर चारों के लिए किया जाता है। मैथी के सूखे दानों का उपयोग मसाले के रूप में, सब्जियों के छौकने व बघारने, अचारों में एवं दवाइयों के निमार्ण में किया जाता है इसकी भाजी अत्यंत गुणकारी है जिसकी तुलना काड लीवर आयल से की जाती है। इसके बीज में डायोस्जेनिंग नामक स्टेरायड के कारण फार्मास्यूटिकल उद्योग मं इसकी मांग रहती है। इसका उपयोग विभिनन आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने में किया जाता है। इसकी पत्तियों में प्रोटीन, खनिज तथा विटामिन्स ‘ए‘ व सी की अधिक मात्रा पायी जाती है। इसके अतिरिक्त कैलोरीज, क्लोरीन, लोहा तथा कैल्सियम आदि पोशक तत्व की मात्रा प्राप्त होती है।
जलवायु-
मैथी षरदकालीन फसल है तथा इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। यह पाले का सहन करने की क्षमता रखती ह। इसलिए इस फसल को ठण्डी जलवायु की अति आवष्यकता होती है। ठन्डे मौसम में अधिक वृद्धि करती है। इस फसल के लिए कम तापमान उचित होता है तथा लम्बे दिनों में अधिक वृद्धि करती है।
भूमि-
मैथी की खेती सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। किन्तु अच्छी उपज के लिए जीवांष युुक्त बलुई दोमट या दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। भूमि में जल निकास का उचित प्रबंध होना अति आवष्यक है तथा पी.ए. मान 6ण्0 से 6.7 के बीच की भूमि उपयुक्त रहती है।
भूमि की तैयारी-
प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल सेकरने के बाद 2-3 बार बखर चलाकर खेत को समतल कर लें ताकि नमी संरक्षित रह सके। खेत साफ स्वच्छ एवं भुरभुरा तैयार हाना चाहिए।
उन्नत किस्में-
पूसा कसूरी, पूसा अर्ली, बंचिग प्लूम-55, प्लूम-57 सी.एस.-381, को-1, राजेन्द्र क्रांति, आर.एम.टी-1, आरएमटी-143 हिसार सोनाली, सीएस-960, लाम सलेक्षन-1 सी.ओ-1 एच.एम.-103 आदि।
बीज दर एवं बीजोपचार-
इसकी 20-25 किग्रा मात्रा प्रति हैक्टर लगता है। बीज को बाने के पूर्व फफूंदनाषी दवा कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किग्रा से उपचारित किया जावे। बीज का उपचार रायजोबियम मेलोलेटी कल्चर 5 ग्राम प्रति किग्रा के हिसाब से करने से भी लाभ मिलता है।
बुवाई का समय-
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसकी बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर है।
बुवाई की विधि- छिटकवां विधि-
इसमें बीज क्यारियों में छिटक कर मिट्टी की पतली तह से ढक देते ह।
पंक्तियों में बुवाई-
इस विधि में बीज की बुवाई पंक्तियों में की जाती है। पंक्तियों की आसी दूरी 30 सेमी और पौधों की आपसी दूरी 10 सेमी रखनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक-
200-250 क्विंटल गोबर की खाद, 40 किलों नत्रजन, 30 किलो स्फुर एवं 15 किलों पोटाष प्रति हैक्टर दे। गोबर की खाद बुवाई के एक माह पूर्व खेत में डालकर मिट्टी में मिला दे। स्फुर, पोटाष एवं नत्रजन की आधी मात्रा को बुवाई से पूर्व खेत में डाल दे। नत्रजन की षेश आधी मात्रा को 3-5 भागों में बांटकर प्रत्येक कटाई के बाद डाले।
सिंचाई-
मैथी में 5-6 सिंचाई की आवष्यकता होती है। 10-15 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहे।
निराई-गुराई-
बोनी के 15 एवं 40 दिन बाद हाथ से निंदाई कर खेत खरपतावार रहित रखे। रासायनिक विधि में पेण्डीमेथिलिन 1 किग्रा सक्रिय तत्व बुचाई के पहले खेत में डाल देना चाहिए। अधिक पैदावार के लिए खेत को खरपतवारों से मुक्त रखे।
रोग एवं कीट नियंत्रण-
जल गलन रोग के बचाव के लिए जैविक फफूंदनाषी ट्राइकोडर्मा से बीज उपचार एवं मृदा उपचार करना चाहिए। फसल-चक्र अपनाना चाहिए। भभूतिया या चूर्णिल आसिता रोग के लिए कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिषत एवं घुलनषील गंधक की 0.2 प्रतिषत मात्रा का छिड़काव करना चाहिए। महो कीट का प्रकोप दिखई देने पर 0.2 प्रतिषत डाइमेथेएट या इमिडाक्लोप्रिड 0.1 प्रतिषत घोल का छिड़काव करे एवं खेत में दीमक का प्रकोप दिखाई देने पर क्लोरपायरीफास 4 लीटर प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ खेत में उपयोग करे।
कटाई एवं पैदावार-
मेथी की फसल की कटाई बोने से 25-30 दिन के बाद करनी षुरू हो जाती है फसल की 3-4 कटाई लेकर बाद में कटाई नहीं करनी चाहिए क्योकि पौधों को बढ़ने देते है। जिससे आग्र चलकर बीज बनाया जाता है। कटाई एक डेढ़ सप्ताह के बाद करनी चाहिए। इसकी उपज भी किस्मों एवं उपयोग में लाये जाने वाले भाग पर निर्भर करता है। यदि उन्नत किस्मों एवं सही समय पर उचित षस्य क्रियाओं को अपनाया जाये तो 70-80 क्वि. हरी पत्तियां सब्जी के लिए एवं 15-20 क्विं. दाने मसालों एवं अन्य उपयोगों के लिये प्रति हे. तक प्राप्त हो जाते है।